अवनीश मेरा अनुज और असीम सम्भावनाओं से युक्त प्रिय गीतकवि है। इसमें प्रतिभा भी है, दृष्टि भी और दीर्घकाल तक तपने का धैर्य व सामर्थ्य भी। अवनीश गीत लिखते भी हैं और गीत विधा की परवरिश की चिन्ता भी करते हैं। यह अपने में बड़ी बात है। इन्होंने अपनी विशेषज्ञता का लाभ उठाकर अनेक वेबसाइटों पर गीत और गीतकारों की प्रतिष्ठा की है, उन्हें वैश्विक मंच दिया है। इनकी वेब-पत्रिका ‘गीत-पहल’ और ‘पूर्वाभास’ अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो चुकी हैं। दूसरी ओर इनकी अंग्रेजी कविताएँ विदेशी काव्य-संग्रहों में संकलित हो चुकी हैं। ऐसे व्यापक रसूख वाले युवक का हिन्दी गीत के सृजन में लगना सचमुच आह्लादकारी है। इनमें दुलर्भ कोटि की विनम्रता है, वर्तमान को सँवारने की लालसा है और भविष्य में कदम रखने की उत्कंठा है।
‘टुकड़ा कागज़ का’ अवनीश चैहान का पहला गीत-संग्रह है। इनका उद्देश्य कथ्य और काव्य-भाषा में नवीनता लाने का है। इसमें ये सफल भी हुए हैं। इन गीतों में तमाम नये परिदृश्य और प्रतीकात्मक शब्द आये हैं, जो वर्तमान समाज से रचनाकार के गहरे सरोकारों के गवाह हैं। ये गीत हमारे सामने हेलीकाप्टर, कैटवाक, कप्टीशन, गाला महफिल, मिसकाल, चकाचौंध, कैफे़ आदि न जाने कितने आधुनिक सन्दर्भों की बात करते हैं, जिनसे आज तक हिन्दी गीत लगभग अछूता रहा। साथ ही ‘चलता है हल / गुड़ता जाए / टुकड़ा कागज़ का’, ‘चीलगाह जैसा है मंजर / लगती भीड़ मवेशी’, ‘बिना टिकट / छुन्ना को पकड़े / रौब झाड़कर / टीटी अकड़े’- ये पंक्तियाँ शौकिया नहीं लिखी जा सकतीं। इनमें गहन अनूभूति है, सूक्ष्म दृष्टि है और बिना किसी संकोच के अपारम्परिक शब्दों को अपनाने की प्रवृत्ति है।
कुल मिलाकर अवनीश के ये गीत नये दौर के गीत हैं। मन इनका भी अपने पुराने गाँवों में रमता है, मगर विसंगतियों के काँटे केले के नये पत्ते की तरह कोमल मन को लहूलुहान कर देते हैं। फिर भी वे निराश नहीं है और तमाम ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों से गुजरने के बाद भी वे जीवन में हरापन ढूंढ ही लेते हैं। यह मेरा आकलन भी है और आशीष भी।
5/2 वसंत विहार एन्क्लेव
देहरादून- 248006
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